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निबंध

सृजन और संकल्प का महोत्सव पर्व है वसंत

रजनीश कुमार शुक्ल


वसंत तो सारे विश्व में आता है पर भारत का वसंत कुछ विशेष है। भारत में वसंत केवल फागुन में आता है और फागुन केवल भारत में ही आता है। गोकुल और बरसाने में फागुन का फाग, अयोध्या में गुलाल और अबीर के उमड़ते बादल, खेतों में दूर-दूर तक लहलहाते सरसों के पीले-पीले फूल, केसरिया पुष्पों से लदे टेसू की झाड़ियां, होली की उमंग भरी मस्ती, फागुनी बयार केवल भारत में ही बहती है। परिवर्तनशील जीवन में सब कुछ चक्रीय गति से घूम रहा है। ऋतुएं भी संवत्सर के चक्र पर बैठकर आती हैं। इन ऋतुओं में किसी का स्वभाव प्रफुल्लित, किसी का शांत, किसी का उत्साह से भरपूर, किसी का ठंडा और किसी का गर्म होता है। वसंत से सृजन का काल शुरू होता है। वसंत को ऋतुराज कहते हैं। ऋतुराज का अर्थ ही है जिसमें सब कुछ सुशोभित हो। प्रकृति अपने जीवन चक्र में यौवनावस्था में होती है। कालिदास ऋतु संहार में इसको विवेचित करते हुए एक ऐसे वातावरण को प्रस्तुत करते हैं जिसमें आम बौराया है। पुष्प सुगंध बिखेर रहे हैं। सर्वत्र नवलता है। वसंत पंचमी इसी नवलता का स्वागत है। स्वागत प्रकृति के सर्वोत्तम सृजन परख रूप का। पत्ते पुष्प से सुगंधित। नर-नारी उल्लास से भरपूर। इसलिए इस अवसर पर सरस्वती की पूजा का विधान है। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि की प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

अर्थात् ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। भारत में विद्या परंपरा शुष्क युक्ति की नहीं है। केवल तर्क से, युक्ति से, विश्लेषण से विद्या प्रतिष्ठित नहीं होती है। उसे सृजनात्मकता का सहकार्य चाहिए। विज्ञान को कला और कला को विज्ञान का साथ चाहिए। तकनीक को शिल्प और शिल्प को तकनीक चाहिए। इसीलिए श्वेत वस्त्रधारणी, गौरवर्णा सरस्वती वीणा और पुस्तक दोनों धारण करती हैं। कमलासना हैं, हंसवाहिनी हैं। नीर और क्षीर का विवेक जो कर सके, वही विद्यावान है। इसलिए वसंत में सरस्वती की पूजा का तात्पर्य है कि इसका विवेक होना कि जीवन में कितना काम आवश्यक है और कितना तर्क। कितना पदों और संबंधों पर आधारित समाज अपेक्षित है और कितना सृजन धर्मी, संवेदना, संवेग और कमनीयता पर आधारित मानव जीवन। ऐसे में वसंत के स्वागत और उस स्वागत में साहित्य, संगीत और कला की अधिष्ठात्री का पूजन महत्त्वपूर्ण है। ज्ञात हो कि मां शारदा का प्राचीनतम मंदिर पकिस्तान अधिकृत कश्मीर में मुज़्ज़फ़राबाद के निकट पवित्र कृष्ण-गंगा नदी के तट पर स्थित है। पौराणिक मान्यता है कि स्वयं ब्रह्मा जी ने इस मंदिर का निर्माण कर मां शारदा को वहां स्थापित किया था इसीलिए उस मंदिर को ही मां शारदा का प्राकट्य स्थल माना जाता है। आद्य गुरु शंकराचार्य ने इसी शारदा पीठ में मां शारदा के दर्शन किए थे। कश्मीर पर मां शारदा की ऐसी महती कृपा हुई कि शिवपुराण, कल्हण की राजतरंगणी, चरक-संहिता, पतंजलि का अष्टांग-योग और अभिनव गुप्त का नाट्यशास्त्र जैसे महान ग्रंथों की रचना कश्मीर में हुई।

वसंत पूजन की यह परंपरा भारत में मदनोत्सव से प्रारंभ होती है। यह भी मान्यता है कि कामदेव ने वसंत के महीने में पंचधन्वा से शिव पर जो आक्रमण किया था और फलस्वरूप कामारि शिव ने कामदेव का दहन किया। तब से काम अनंग हो गया। अनंग काम, साकार काम से ज्यादा ही खतरनाक है। क्योंकि अनंग काम चेतना का हिस्सा बनता है। बुद्धि को सम्मोहित कर लेता है। अनंग है इसलिए पकड़ में नहीं आता। उसको बांधने की हर कोशिश फिसल जाती है। फलतः सर्वत्र कामना, लालच, ऐंद्रिकता और मांसलता प्रभावी होने लगती है। मदनोत्सव इसीलिए होता था कि मदन का उत्सर्जन करना है, उसे निचोड़ना है, आसवित करना है। भारतीय जीवन में रंग स्वाद है। रंग एक विश्वास है। रंगों का उत्सव उस विश्वास की आवाज है। इसलिए वसंत माघ के पंचमी से शुरू हो जाता है और वैशाख तक अपने ऋतुराग से जीवन को उद्वेलित और आनंदित करता रहता है। वसंत पंचमी को लेकर ढेरों कथाएं हैं। जब मैं वसंत पंचमी की याद कर रहा हूँ तो मुझे वीर हकीकत राय की याद आ रही है, जिसने अपनी आस्था के लिए अपने आपको बलिदान कर दिया और जब वीर हकीकत राय के किशोर सौम्य मुख मण्डल को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार छूट गई तब वीर हकीकत राय ने जल्लाद से कहा, मैं अपने धर्म का पालन करता हूँ, तुम अपने धर्म का पालन करो। बसंतोत्सव धर्मपालन का उत्सव है। फिर मैं जब बसंतोत्सव का विचार करता हूँ तो मुझे गुरु गोविंदसिंह की याद आती है जिनका विवाह आज के ही दिन हुआ था और उस विवाह की परिणति एक ऐसे परिवार की निर्मिति के रूप में होती है जिसमें सब के सब ने अधर्म, अनाचार, अत्याचार के विरुद्ध अपने को बलिदान कर दिया। फिर वसंत पंचमी की याद करते हुए नामधारी सम्प्रदाय के सदगुरु रामसिंह कूका की याद आती है जिनका जन्म वसंत पंचमी को ही हुआ था और जिन्होंने भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए स्वदेशी और बहिष्कार जैसे महान हथियार दिए थे। मुझे स्वाभाविक तौर पर इस अवसर पर भारत की महान परंपरा के बीच कान्यकुब्ज भोज की भी याद आती है, जिनका जन्म आज के ही दिन हुआ था और जिन्होंने शास्त्रार्थ की ऐसी एक स्वस्थ परंपरा निर्मित की, जिनका अनुकरण भारतीय ज्ञान परंपरा में निरंतरता के साथ हो रहा है और इस शास्त्रार्थ परंपरा या शास्त्रार्थ के स्थल को सरस्वती कंठाभरण कहा। शास्त्रार्थ है, प्रश्न है, उत्तर है, फिर प्रश्न है, फिर उत्तर है, यही किसी जीवंत, श्रेष्ठ लोकतांत्रिक समाज की ताकत भी है। विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री पूजन का यह अवसर इसी प्रकार के सुगम्य, सांगीतिक, युक्ति-प्रयुक्ति की परंपरा स्थापित करने का प्रतीक दिन है। इस महान परंपरा में समकालीन परिदृश्य बड़ा अच्छा नहीं दिख रहा है। जब यह अहमन्‍यता घर कर जा रही है कि हम जो कह रहे हैं वही अंतिम है। हमारी बातें मानी जाती हैं तो लोकतंत्र है। ऐसे में बसंतोत्सव उल्लास का, उत्साह का, नवलता का पर्व नहीं हो सकता है। केवल प्रकृति में नवलता होने से जीवन नया नहीं होता है। जीवन नवल हो, सुवासित हो, समाज समंजित हो, इसके लिए समरसता की जरूरत है। बिना मिले, बिना समरस हुए, एक रस हुए, अलग-अलग बजना और अलग-अलग बोलना संगीत को नहीं सृजित करता है। विविध स्वर जब समन्वित करते हैं, साथ आते हैं तभी संगीत बनता है। समाज जीवन का संगीत भी इससे अलग नहीं हो सकता है। समाज जीवन का संगीत बिना राष्ट्रीय हितों को सामने रखे हुए सर्वहितकारी और लोक कल्याणकारी नहीं हो सकता है। केवल तर्क से भी सरस समाज नहीं बनेगा, केवल तर्क से ही समाज में यांत्रिकता आएगी और यांत्रिकता होगी तो पूर्जे टकराएंगे। स्वर होगा, लय होगा, कोमलता होगी, तो सामंजस्य बनेगा, सहकार बनेगा। वसंत विविध रंगों के पुष्प, पर सब में सौंदर्य, विविध स्वाद के फल, पर सब में पोषण की क्षमता, विविध नदियों के जल, किंतु सब में रस के भाव को मनुष्य और उसके समाज में जागृत करने का पर्व है। जहां एक ओर वसंत ऋतु हमारे मन में उल्लास का संचार करती है, वहीं दूसरी ओर यह हमें उन वीरों का भी स्मरण कराती है, जिन्होंने देश और धर्म के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। हमें सरस्वती का प्राकट्य दिवस वसंत पंचमी जीवन के महान संकल्पों के दिवस के रूप में मनाना चाहिए।


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